उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी पार्टी को करारी मात दी थी। बीजेपी जहां जीत के बाद योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में लगातार दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुई थी, वहीं समाजवादी पार्टी ने हार के बावजूद अपने वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या में जबरदस्त इजाफा किया था। 2017 केपिछले विधानसभा चुनावों में 21.82 प्रतिशत मतों के साथ सिर्फ 47 सीटों पर सिमट जाने वाली सपा ने 2022 के विधानसभा चुनावों में 111 सीटों पर जीत दर्ज की और उसे 32.06 फीसदी वोट मिले। वोट प्रतिशत के लिहाज से यह सपा का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था, और बेशक इसमें सबसे बड़ा योगदान सूबे के मुस्लिम वोटरों का था।
जिसने मुसलमानों को साध लिया, उसने यूपी जीत लिया!
उत्तर प्रदेश में कुछ साल पहले तक माना जाता था कि जिस पार्टी ने अपने कोर वोट के साथ मुसलमानों को साध लिया, उसका लखनऊ पर कब्जा तय है। हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के शानदार प्रदर्शन ने इस धारणा पर करारी चोट की थी, और 2017 के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने इसे चकनाचूर करके रख दिया था। 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के एक साथ आने के बावजूद बीजेपी ने यूपी की अधिकांश सीटों पर परचम फहराया था। कहने की जरूरत नहीं है कि उन चुनावों में मुसलमानों के एक बहुत बड़े हिस्से का वोट सपा-बसपा गठबंधन को मिला था, लेकिन इसके बावजूद वे बीजेपी के रथ को रोकने में नाकाम रहे थे।
मुसलमान वोटरों ने जमकर दिया था अखिलेश का साथ
2019 में चोट खाने केे बाद उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों के सामने 2022 का विधानसभा चुनाव था। पिछले कुछ सालों से मुसलमानों का अधिकांश वोट बसपा और सपा में बंटता आया था। हालांकि 2022 में ऐसा होने की संभावना कम ही दिखाई दे रही थी क्योंकि एक तरफ जहां बसपा सुसुप्तावस्था में पड़ी थी, वहीं दूसरी तरफ सपा मुसलमानों के बीच उसे बीजेपी की ‘बी टीम’ होने का भरोसा दिलाने में कामयाब हो गई थी। 2022 के विधानसभा चुनावों में मुसलमानों ने जिस हद तक जाकर अखिलेश यादव का समर्थन किया, वैसा यूूपी में शायद ही कभी देखने को मिला था। हालांकि मुस्लिम+यादव समीकरण के पूरी तरह अपने पाले में होने के बावजूद अखिलेश जीत दर्ज कर पाने में नाकाम रहे।
अखिलेश से होता जा रहा है मुसलमानों का मोहभंग
बीते कुछ दिनों में मुस्लिम समुदाय के कुछ नेताओं के बयान देखकर लग रहा है कि अब मुसलमानों का अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी से मोहभंग हो रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान और सांसद शफीकुर्रहमान बर्क जैसे नेताओं की नाराजगी की खबरें सामने आई हैं। पार्टी के तमाम मुस्लिम नेताओं का कहना है कि मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है और अखिलेश यादव चुप्पी साधकर बैठे हुए हैं। अगर वह कुछ बोलते भी हैं तो उनकी आवाज सिर्फ सोशल मीडिया तक ही सीमित रह जाती है। नाहिद हसन से लेकर आजम खान और शहजिल इस्लाम तक, तमाम सपा नेताओं पर कार्रवाई हुई लेकिन अखिलेश की तरफ से कुछ खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली।
यूपी के मुसलमानों के सामने अब क्या हैं विकल्प?
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर अखिलेश यादव से मोहभंग होता है तो यूपी के मुसलमानों के सामने विकल्प क्या हैं? तमाम संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों के सामने मुख्यत: 3 विकल्प ही नजर आते हैं। 1- मुसलमान अपनी लीडरशिप बना सकते हैं और इसके लिए असदुद्दीन ओवैसी या आजम खान समेत किसी अन्य ऐसे नेता पर विचार कर सकते हैं जो पूरे यूपी में अपना असर रखता हो। 2- मुसलमान एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी की तरफ मुड़ सकते हैं और दलित+मुस्लिम गठजोड़ के सहारे यूपी की सत्ता में अपना दखल पैदा कर सकते हैं। 3- तीसरा और अंतिम विकल्प है कांग्रेस के साथ जाने का। यह सच है कि कांग्रेस यूपी में लुप्तप्राय हो गई है, लेकिन अगर मुसलमान और कुछ अन्य धड़े पार्टी के साथ आ गए तो इसमें जान आ सकती है।
क्या मुसलमान बना पाएंगे अपनी लीडरशिप?
यदि उत्तर प्रदेश के मुसलमान पहले विकल्प पर गौर करते हैं और अपनी लीडरशिप तैयार करने में कामयाब होते हैं तो भी सत्ता में हिस्सेदारी का उनका ख्वाब पूरा होना मुश्किल ही लग रहा है। सिर्फ कुछ ही विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमान अपने दम पर किसी प्रत्याशी को सीट जीता पाने में कामयाब हो सकते हैं। उसपर भी कभी किसी प्रत्याशी को किसी एक समुदाय का 100 फीसदी वोट ट्रांसफर हो पाना मुश्किल ही होता है। ऐसे में जाहिर-सी बात है कि उन्हें यूपी की सत्ता में आने के लिए किसी और समाज की पार्टी के साथ गठजोड़ करना ही होगा। हां, यह जरूर हो सकता है कि कुछ सीटों पर जीत हासिल करने के बाद विधानसभा में किसी दल को उनकी जरूरत पड़े और वे सत्ता में भागीदारी हासिल कर सकें।
बसपा के साथ जाने का विकल्प कैसा रहेगा?
सूबे में मुसलमान मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी के साथ भी जा सकते हैं, और यदि पार्टी मेहनत करे तो निश्चित तौर पर यूपी की सियासत में वापसी कर सकती है। बसपा के साथ एक अच्छी बात यह है कि मायावती को एक ऐसे प्रशासक के रूप में याद किया जाता है जिनके शासनकाल में कानून-व्यवस्था की छवि अच्छी थी। वहीं, अखिलेश के साथ अन्य समुदायों के जुड़ने में उनके समर्थकों की दबंग छवि ही सबसे बड़ी दिक्कत साबित होती रही है। हालांकि बसपा के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि गैर-जाटव वोट बैंक उसके हाथ से छिटक गया है और मायावती भी अब पहले जैसी ऐक्टिव नहीं रही हैं। ऐसे में इस बात की संभावना कम ही लग रही है कि मुसलमान अखिलेश का साथ छोड़कर पूरी तरह बसपा के साथ जाएगा।
कांग्रेस में एक नई जान फूंक सकते हैं मुसलमान
मुसलमानों के सामने एक तीसरा विकल्प कांग्रेस भी है। राष्ट्रीय स्तर पर भी सिर्फ यही एक पार्टी है जो बीजेपी को थोड़ी-बहुत टक्कर देती दिखती है। इसके अलावा बाकी पार्टियों का प्रभाव एक या 2 राज्यों तक ही सीमित है जैसे पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस या तमिलनाडु में डीएमके। उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों तक कांग्रेस के 6 फीसदी वोट थे, हालांकि 2022 के विधानसभा चुनावों में 40 फीसदी महिलाओं को टिकट देने की रणनीति ने पार्टी का नुकसान किया और वह 2017 के 6.25 फीसदी वोटों से घटकर 2022 में 2.33 फीसदी वोटों पर आ गई। हालांकि कांग्रेस अभी भी एक ऐसी पार्टी है जिसका यूपी के हर जिले में संगठन है और यदि मुसलमानों समेत कुछ अन्य समुदायों को साथ लेकर वह मेहनत करती है तो यूपी की सियासत में एक बार फिर बड़ा असर पैदा कर सकती है।
कब तक खत्म हो पाएगी मुसलमानों की दुविधा?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि सूबे के मुसलमानों की दुविधा आखिर खत्म कब तक होगी? 2024 में उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव होने हैं। ऐसी संभावनाएं हैं कि यह चुनाव यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का भविष्य तय करने के साथ-साथ यह भी तय कर देगा कि अगले कुछ सालों तक यूपी के मुसलमान किस तरफ जाएंगे। उत्तर प्रदेश में अंसारी परिवार, आजम खान, शफीकुर्रहमान बर्क, नाहिद हसन समेत तमाम मुस्लिम नेता हैं जिनकी अपने-अपने इलाकों में अच्छी पकड़ है और वे मुसलमानों की एक नई लीडरशिप तैयार कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश के मुसलमान एक बार फिर तिराहे पर हैं, और यह उन्हें ही तय करना है कि यहां से वे किस रास्ते की तरफ अपने कदम बढ़ाते हैं।